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अहंकार रहित जीवन ही संतत्व

लेखनी के रंग
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कर्म जीवन का अभिन्न अंग है, कर्म की नियति अत्यन्त ही गूढ़ है, प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कर्म स्वतः एवं स्वाभाविक रुप से जुड़ा हुआ है। व्यक्ति के कर्म की पवित्रता उसके पवित्र विचारों पर निर्भर करती है। समस्त साधन व्यक्ति की मानसिक शुद्धता के दृष्टिकोण से विकसित किए गये हैं। प्रायः ऐसा भी देखने में आता है कि व्यक्ति साधनों का अर्थ ही नहीं समझ पाते हैं और उसका दुरुपयोग भी करते हैं अतः जो साधन जीवन के उद्धारक होते हैं वही साधन वही साधन व्यक्ति के जीवन के नाशक बन जाते हैं। साधनों के माध्यम से जीवन को मोह के बन्धन से मुक्त कर पाने में ही साधनों की सार्थकता है न कि साधनों के दासता में।

    यह समस्त व्रह्मांड एक प्रयोगशाला है जिसमें कि आदि शक्ति के द्वारा अनेक प्रकार के प्रयोग किए जाते हैं। जिस प्रकार वैज्ञानिकों के द्वारा अनेक प्रकार के यन्त्रों का आविष्कार किया जाता है तथा उन यंत्रों के माध्यम से विभिन्न प्रकार के प्रयोग किए जाते हैं और नई-नई वस्तुओं की खोज होती है, उसी प्रकार परमपिता परमेश्वर, अनेकों प्रकार के जीव-जन्तु, पेड़-पौधों आदि की उत्पत्ति करता है, तत्पश्चात इनके माध्यम से अनेकों प्रकार के प्रयोग करता है और शक्ति निरुपण की नई सम्भावनाओं की तलाश करता है। शिव पुराण के अनुसार, आदि शक्ति की इच्छा हुई एक होने की तो शिव की उत्पत्ति हुई, उस एक की इच्छा हुई अनेक होने की तो व्रह्मा और विष्णु की उत्पत्ति हुई, तत्पश्चात उनके इच्छा अनुरुप समस्त व्रह्मांड की उत्पत्ति हुई। इस दृष्टिकोण से आदि शक्ति की इच्छा ही समस्त व्रह्मांड की उत्पत्ति, कर्म एवं विनाश का मूल है, अतः इस संसार में जो भी घटित होता है उस आदि शक्ति इच्छा के अनुरुप ही होता है। शिवपुराण में लिखित एक कहानी है, एक बार व्रह्मा एवं विष्णु में एक दूसरे से ज्यादा शक्तिशाली होने का अहंकार हो गया, दोनों लोगों ने मिलकर यह निश्चित किया कि दोनों में से जो पहले सृष्टि के ओर-छोर का पता लगा लेगा वह ज्यादा शक्तिशाली होगा। इस कार्य में दोनों ही लोग असफल रहे, दोनों लोगों का अहंकार टूट गया। दोनों लोगों ने तपस्या किया शिव का दर्शन प्राप्त किया तथा उनके द्वारा अपने-अपने कर्मों का मार्गदर्शन प्राप्त किया। तत्पश्चात व्रह्मा ने इस सृष्टि का निर्माण किया, तथा विष्णु इसका पालन करते हैं। इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि, अहंकार किसी भी बात का, किसी भी परिस्थिति में, किसी के लिए भी उचित नहीं होता है। एक सत्य यह भी है कि, इस संसार में शायद  अहंकार के प्रभाव से कोई बचा हो, यह कभी न कभी किसी न किसी रुप में प्रत्येक व्यक्ति को व्याप ही लता है। किन्तु यह भी सत्य है कि अहंकार किसी का रहता भी नहीं है, टूट ही जाता है।

    अहंकार पूर्ण जीवन और अहंकार रहित जीवन इन दोनों में अत्यन्त ही सूक्ष्म अन्तर होता है। समस्त कर्मों का मूल है इच्छा, इच्छा उत्पन्न होती है मन से और मन का सम्बन्ध है, समस्त इच्छाओं के मूल परमपिता परमेश्वर से। जिनका मन पवित्र एवं स्वच्छ होता है उनका मन स्पष्ट रुप से ईश्वर से जुड़ा रहता है तथा अतः उनकी इच्छाएं भी पवित्र होती हैँ अन्यथा इच्छाएं दुर्भावनायें होती हैं। अहंकार एवं ज्ञान में एक तुलनात्मक सम्बन्ध होता है। अहंकार का अभाव ही ज्ञान है, ज्ञान की पूर्णता अहंकार के पूर्ण रुप से नाश से ही सम्भव है। ज्यों-ज्यों अहंकार का नाश होता है त्यों-त्यों ज्ञान स्वतः बढ़ता जाता है, और ज्यों-ज्यों अहंकार बढ़ता है त्यों-त्यों ज्ञान का  नाश भी स्वतः होता जाता है। इस संसार में कोई पूर्णतः अहंकार से मुक्त हो जाए ऐसा विरले ही सम्भव होता है, इसलिए कोई पूर्णतः ज्ञानी हो जाए ऐसा भी करोड़ों-अरबों में किसी एक के साथ घटित होता है। प्रायः अहंकार ही ज्यादा दृष्टिगत होता है, सामान्यतः कोई व्यक्ति अहंकार का पूर्णतः नाश कर सकता अतः वह पूर्ण ज्ञानी भी नहीं बन सकता है, अतः यदि अहंकार एवं ज्ञान में संतुलन स्थापित किया जा सके तो उसको ही अहंकार से मुक्ति माना जा सकता है। नदी के दोनों किनारे यदि अपने-अपने स्थान पर सही सलामत रहते हैं तो नदी में पानी सही एवं स्वाभाविक रुप से बहता है, इसी प्रकार जब अहंकार एवं ज्ञान का संतुलन बना रहता है विचार एवं भावों का प्रवाह भी स्वभाविक एवं सही रहता है जिससे व्यक्ति जीवन का वास्तविक एवं पवित्र उद्देश्य समझ पाता है और आत्म ज्ञान प्राप्त कर पाता है।

 

 

मुकेश कुमार यादव                 

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